संत वचन













शान्ति वचन भण्डार

 


वचन (1) सतगुरु के सेवक को ऐसा आचरण करना चाहिए जो साधारण लोगों के लिए परमाण बन जाए  और स्वत: उनके मुख से निकले कि धन्य हैं इनके सतगुरु जिनसे इन्हें आत्मिक शांति प्राप्त हुई है |



वचन  (2) सतगुरु के सेवक को मन और इन्द्रियों के आधीन नहीं रहना चाहिए | परीक्षा के समय तो और भी अधिक सतर्क रहे | यदि कोई कूट या कर्कश बोलता है तो उसके साथ भी उसको वैसा नहीं बोलना चाहिए, नहीं तो सत्संगी और साधारण मानुष में क्या अंतर हुआ?



वचन (3) ए गुरुमुख तुमसे अगर कोई अनुचित वयवहार करे तो तुम क्रोधित ना होवो | सतगुरु का ध्यान करो और उनके वचन याद करो |



वचन (4) बुरे से बुराई न करो अपितु बुराई सोचो भी न | इस साधन को अपनाने से तुम भी बुराई से बच जाओगे और धीरे-धीरे बुरों को भी भला बना लोगे |



वचन (5)  तुम यधपि पूरण सतगुरु के सेवक हो फिर भी श्री आज्ञा माने बिना कृपा उपलब्ध नहीं  होगी और कृपा बिना निस्तार नहीं होगा |



वचन (6)  तुम जो कुछ सत्संग में सुनते हो उसे कार्येन्वित रूप मे लाते हो या नहीं , यह जांच सदैव  किया करो और कदम आगे ही आगे क्रमश: बड़ाते रहो



वचन (7)  किसी झगडालू वयक्ति से यदि सामना हो जाये तो चुप से कार्ये लो | उचित अथवा अनुचित सब बातों को सहन कर लो | यदि बात को पलटाओगे तो  झगडा बढ  जायेगा |



वचन (8) जिसे अपने मान सम्मान का विचार नहीं और जिसमें दूसरों का सम्मान करने की क्षमता नहीं , वह बुद्धिमान नहीं | बुद्धिमान वही है जो दूसरों को  सम्मान देकर स्वयं निर्मान बना रहे |



वचन (9)  तुम्हारे ऊपर  यदि कोई सत्य या असत्य का दोषारोपण करता है तो तुरंत क्रोधित मत होवो , धैर्य से काम लो क्योंकि कहने वाले का वचन कोई  इश्वरीय वाक्य नहीं है कि जो वह  बोलेगा वही हो जायेगा |



वचन  (10) जैसे व्यय की पूर्ति आय से होती है उसी प्रकार भक्ति धन की पूर्ति भाजनाभ्यास से होगी इसके बिना मनुष्य भक्ति  के धन से वंचित रहेगा |



वचन (11) जो स्वयं ही क्रोध रूपी अग्नि में जलता रहता है  वह दूसरों की तपन कैसे बुझायेगा |



वचन (12) यदि तुमने गुरु शरण अपनाकर भी मन की शक्ति कम न की और मन के अनुसार ही काम किया तो जीवन आकारथ गया  |



वचन (13) सेवक को सदैव यह देखना चाहिए कि मुझमें भक्ति के गुणों की वृद्धि हो रही है या कमी | यदि कमी हो रही है तो अपने ऊपर खेद करना चाहिए और मालिक के चरणों में प्रार्थना करनी चाहिए कि मुझे भजनाभ्यास करने की शक्ति दें |



वचन (14) ऐ सेवक ! तुम गुरु आज्ञा पर अमल करो तो सच्चे इंसान बन जाओगे और अमल के बिना कथनी करने वाला पढ़ा हुआ क्यों न हो , उसे अनजान ही समझना चाहिए |



वचन (15) काम और नाम दोनों एक स्थान पर नहीं रहते | यदि नाम में उन्नति करना चाहते हो काम के बहाव में बहने से स्वयं को बचाओ |



वचन (16) विभीषण ने नाम से प्रेम किया और रावण ने काम से | परिणाम यह निकला कि विभीषण कि आज तक जय जय होती है और रावण को दशहरे के दिन जलाकर लोग प्रसन्न होते हैं |



वचन (17) प्रभु प्राप्ति की यदि  लगन है तो अन्त:करण  को शुद्ध करते रहो विकारी ह्रदय में निर्विकार प्रभु कैसे आयेंगे |



वचन (18) आत्मिक उन्नति के लिए काम, क्रोध ,लोभ , मोह , इत्यादि त्यागने पड़ेंगे क्योकि ये भक्ति के रास्ते में बाधा डालते हैं जैसे एक बंधा हुआ व्यक्ति यात्रा नहीं कर सकता वैसे ही इन विकारो में बंधा हुआ व्यक्ति भक्ति मार्ग पर आगे नही बढ़ सकता |



वचन (19) प्रभु तुम्हारे अंग संग  हैं | तुम्हारी वृति  बहिम्रुखी  होने के कारण तुम्हे   द्रष्टिगोचर नहीं होते |



वचन (20) गुरु-शब्द  सब दुखो:की औषधि है | उसकी कमाई से तुम्हारे जन्मों जन्मों की मैली सुरति निर्मल हो जाएगी | 



वचन (21) प्रत्येक के ह्रदय मे प्रभु का वास है | यदि भगवान की भक्ति कर के उसे प्रसन्न करना चाहते हो तो किसी ह्रदय को न सताओ |



वचन (22) आन्तरिक विकार जीव के प्रबल शत्रु हैं | प्रत्येक व्यक्ति का उनसे मुक्त होना आसान काम नहीं है , परन्तु विरले गुरुमुख निरन्तर परिश्रम और सतगुरु कृपा से उन पर विजय प्राप्त करते हैं |



वचन (23) कमजोर व्यक्ति ही शत्रु के आगे झुकता है | सूरमा तो मरण काल तक सामना करता रहता है परंतु पग पीछे  नहीं हटाता | यदि काम - क्रोध तुम पर हमला करते हैं  तो सतगुरु शब्द की कमाई से उन पार विजय प्राप्त करो |  



वचन (24) जीवन चार दिन का है |  नाव के यात्रियों के समान हिल्मील के चलो | समय व्यतीत हो जायेगा  | इसलिये सब से प्रेम का व्यवहार करो |  



वचन (25) आत्मिक पथ पर चलते हुए इन दोनो से बच कर चलो - एक कनक और दूसरा कामनी | यह दोनों इस मार्ग मे रुकावट  डालते हैं |  







वचन (26) किसी भी बुरी वस्तु की आदत मत डालो | स्वभाव बनाना तो सरल है, किन्तु उसमें परिवर्तन लाना कठिन हो जाता है | 



वचन (27)यदि सतगुरु शब्द का रस लेना चाहते हो तो विषय रसों का त्याग करो | एक म्यान  में दो तलवारे कैसे समायेंगी |



वचन (28) भोजन सतवगुणी , हल्का और कम खाओ तो स्वांस सरलता से चलेगी और भजन में सहयोग प्राप्त होगा |  



वचन (29) एकान्त से  प्रेम करो और दिल का सारा बोझ गुरु चरणों में समर्पित करके स्वतंत्र होकर रूहानी मार्ग की यात्रा करो |



वचन (30) चिन्ता चिता से बुरी है | चिता तो पल में जलाकर भस्म कर देती है और चिन्ता आजीवन जलाती रहती है इसलिए चिन्ता को विस्मृत कर सच्चे नाम की सम्भाल करो |



वचन (31) मालिक से प्रीत निभाने में चाहे कितनी भी कुर्बानी देनी पड़े तो प्रसन्त्रता  से दो । जब  कामी काम के पीछे , लोभी धान के कारण सिर देने को तत्पर रहते हैं तो तुम मलिक के लिये कोई भी मुश्किल आ पड़े तो संकोच  न करो  |



वचन (32) सन्त-मत प्रविषट् हुए हो तो प्रमाद एवं वाद-विवाद को त्याग गुरु-सेवा मे तत्पर रहो और चुप रहो।  



वचन (33) लोगों की बातों से भयभीत होकर सत्य से मुख मत मोड़ो । तुम्हारी मुक्ति लोगों  के हाथ् मे नही हैं। करोड़ों लोगों को चाहे प्रसन्न कर लो परन्तु मालिक की द्रष्टि से यदि वंचित रह गये तो समझो असफल हो कर जा रहे हो |



वचन (34) कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ेगा  जैसा  कर्म होगा वैसा  ही परिणाम होगा | इसलिए तुम भाग्यशाली हो जो तुम्हें सतगुरु शरण प्राप्त हो गई  है जिसके फलस्वरूप तुम्हें  शुभ कर्म कराने के लिए  सहयोगी  मिल गये और कुकर्मों से बचाने के लिए रक्षक |



वचन (35) जैसी वस्तु वैसा ही मुल्य होगा , पचास या सो रूपये में कुर्सी , मेज या पलंग आदि मिल जायेंगे, मकान हजारों या लाखों देने से मिलेंगे | यदि सतगुरु द्वार से नाम रूपी अमूल्य पदार्थ लेना चाहते हो तो तन मन धन का मुल्य देने के लिए तत्पर रहो |  "तन-मन-धन-गृह सोंप शारीर, साईं सुहागनी रवे कबीर | "



वचन (36) शारीरिक रोग अथवा  कष्ट तो गुरुमुख पर आते हैं , लेकिन वह मालिक के नाम में इतने लवलीन  रहते हैं कि उन्हें दुखों का आभास नहीं होता |   



वचन (37) सन्तमत में प्रविष्ट हुए हो परन्तु लाभ तब होगा जबकि दिल व् जान से उस मत के नियमों का पालन करोगे |



वचन (38) गुरुमति का मुल्य है मनमती का त्याग | इसके बिना भक्ति  मार्ग में सफलता प्राप्त करना असंभव है |    



वचन (39) यदि तुम्हें उच्च पद प्राप्त हो गया है तो छोटों  को परेशान मत करो | नहीं तो उनकी हार्दिक पुकार तुम्हें भी परेशान कर देगी |



वचन (40) किसी की भी निंदा मत करो क्योंकि उससे तम्हारी भी हानि होगी .. यदि तुम पूछते  हो कि कौन सी हानि होगी तो सुनो-तुम्हारे सब शुभ कर्मों का फल उसके पास चला जायेगा जिसकी तुम निंदा कर रहे हो | अब स्वयं ही समझ लो |

वचन (41)  जैसे  अँधेरी कोठरी में हर समय ठोकर लगने का भय रहता है वैसे  जिस व्यक्ति का ह्रदय अज्ञान के अंधकार से पूर्ण हो उसे सत्य -पथ से भटकने का भय रहता है | इसलिए ह्रदय में आखंड ज्योति जलाओ , जिसमे प्रेम की बती और सत्य का तेल हो |  

वचन (42) जिस सेवक को सतगुरु के चरणों में प्रेम है वह नाम का अभ्यास करे | संतो का फरमान है कि भगवान् को अहंकार नहीं सुहाता जहाँ नाम होगा वहाँ अहंकार नहीं होगा | सेवक को अपनी सुरति नाम में ऐसी जोड़नी चाहिए जिससे केवल तूँ ही तूँ रह जाए और मै मै भूल जाए | इसी को कहते सच्चा प्रेम |

वचन(43)  आतिम्क लाभ हानि की पूर्ण जानकारी सदगुरु को होती है | जीव की प्राय: यही दशा होती है कि थोडा भजन या सेवा करके स्वयं को कुछ समझने लगता है इसलिए हानि की ओर जाता है और समझता यह है कि मैं लाभ की ओर जा रहा हूँ | यदि ह्रदय मे दीनता धारण करोगे तो सुरक्षित रहोगे |

वचन(44) जिसको प्रभु प्राप्ति की अभिलाषा हो, उसे अन्य सभी इच्छाएं त्याग देनी चाहये |

वचन (45) यदि स्वयं को प्रेम रंग मे रंगना चाहते हो तो पहले मोह ममता की मैल को सत्संग रूपी सरोवर पर जाकर धोवो |      



वचन (46) कुर्बानी किये बिना सफलता कदाचित प्राप्त नही हो सकती |



वचन (47) आत्मिक शक्ति की प्राप्ति के लिए कम खाना, कम बोलना ,कम सोना आवश्यक  है | 



वचन (48) मन को इन्द्रिय, विषय-विकारों की ओर से रोककर सुमिरन और सेवा मे निरंतर लगाओगे  तो उस पुरुषार्थ  का फल आतिम्क लाभ होगा |



वचन (49) बहुत लोग बाते तो ऐसे करते हैं जैसे प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त की हो परन्तु उनके कर्म तो प्रभु की महिमा भी केवल मायावी पदार्थो की प्राप्ति के लिए करते हैं ,ऐसे लोगों को भक्त या बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता |



वचन (50) सुमिरन में  महान शक्ति है | जैसे लोहा लोहे से काटा  जाता हैं इसी प्रकार नाम के सुमरिन से अन्य सभी मायावी विचारों को काट दो |